जैन गुरु / संत पर हिंदी निबंध / भाषण Hindi Speech / Essay on Jain Guru / Sant

November 23, 2017
जैन गुरु उस दिपक के समान हैं, जो हमारे जीवन का अंधकार  दूर करते हैं और ज्ञान रुपी प्रकाश  हमारे जीवन में फैला कर हमारा जीवन उच्चा बनाते है। जिनकी मेहर नजर  हम पर रही  तो हमारे जीवन का उद्धार हो जाता है। ऐसे जैन  गुरु के लिए बनाया गया हिंदी निबंध आपके साथ शेयर करना चाहती हूं, आप इस निबंध को आप के भाषण में भी शामिल कर सकते हैं।

hindi-speech-essay-on-jain-guru-sant

जैन गुरु / संत पर हिंदी निबंध / भाषण

Hindi Speech / Essay on Jain Guru / Sant

संत / गुरू - जीवन का बसंत

                                  गरिमा गुरु की अनंत है , गुण गौरव भंडार
                                                जन जन के हैं देवता, मम् जीवन आधार
                                  वर्धमान के वीर हो, गुरुदेव की शान
                                                 नमन करूं मैं भक्ति से पाऊं पद निर्वाण!


                   परिवार के ऐसे संस्कार थे कि बचपन से ही धर्म के प्रति लगाव था। लेकिन धर्म की सही परिभाषा को कभी समझ ही नहीं पाई। अंतराय कर्म का ऐसा जबरदस्त उदय था कि जिस गांव में में रहती थी वहां पर गुरु भगवंतों का आना-जाना न के बराबर था। आयुष्य के 23 वें वर्ष में पदार्पण करने के बाद परम पूज्य गुरु भगवंतों से छ: काय जीवो का स्वरूप समझने का दुर्लभ मौका मिला। तब धर्म के तत्वों को  समझने का अवसर मिला। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं कितने पुण्यवान हूं जो तीर्थंकर, केवली द्वारा बताया गया धर्म मुझे प्राप्त हुआ है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवो के बारे में जानने का, समझने का अवसर मिला हैं। आज गुरु भगवंतों की असीम कृपा से जीवन में थोड़ा ज्ञान है और उसका आचरण में लाने का प्रयास भी है। पर मन में एक कसक भी है जिंदगी के 22 वर्ष मैंने बिना धर्म के बिता दिए। मुझे गुरु भगवंतों का सानिध्य नहीं मिलता तो आज भी मेरी जिंदगी पशु के समान होती।

ये भी पढ़े :- जैन गुरु पर शायरी 

               अगर घर के दरवाजे पर ताला लगाया हो तो ताले की चाबी सीधी घुमाईं तो दरवाजा खुल जाएगा और उल्टी  घुमाईं तो दरवाजा बंद हो जाएगा, यह चाबी घुमाने की कला हमें आनी चाहिए। बस यही चाबी घुमाने की कला हमें गुरू सिखाते हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में हमें प्रगति करनी है तो गुरु के मार्गदर्शन की जरूरत होती है। बिना गुरु के आत्मोन्नति संभव नहीं। धार्मिक व्यक्ति, अध्यात्म में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति गुरु की खोज में रहता है। सच्चे गुरु मिल जाए तो आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्ति हो जाए। गुरु ज्ञानी गुलाब की तरह है। गुलाब की हर पंखुड़ी-पंखुड़ी में सुगंध होता है। वैसे ही गुरु के आदेश में हमारा कल्याण होता है। जिसे हम गुरु कहें, जिसे हम गुरु पद पर आसीन करें, गुरु मानकर श्रद्धा अर्पण करें, उसमें श्रद्धा ज्ञान होना चाहिए, शर्मनाक इधर उधर से उधर सामान्य सूचना जानकारी, सामग्री इत्यादि संग्रह करने वाले को, उसी आधार पर भाषण करने वाले को गुरु नहीं कह सकते। इस तरह का सामान्य ज्ञान तो किसी स्कूल के मास्टर में भी पाया जा सकता है।

                    मेरे नजर में तो गुरु वह है जो ज्ञान और अज्ञान में फर्क करना जानता है। जो प्रकाश और अंधकार को समझता हो। जो तर्क-कुतर्क में भेद जानता हो। जो श्रद्धा अंधश्रद्धा का अर्थ बताता हो। भ्रम और यथार्थ में कितना भेद है इसका जो अंतर जानता हो, इन पंक्तियों पर जो खरा उतरे उसे हम सच्चा गुरु कह सकते हैं।

 ये भी पढ़े :- जैन सवाल जवाब

                    एक बार भगवान महावीर से पूछा गया, संसार में सबसे बड़ी अग्नि कौनसी है? ऐसे तो जब ज्वालामुखि फुट पड़ता है तो भयंकर रूप धारण कर लेता है। हजारों लाखों व्यक्तियों को और नगर के नगर भस्म में कर देता है। वन में लगने वाला दावानल भी कम भयंकर नहीं है। परंतु इससे भी भयंकरतम आग तो अंदर में जल रही है। और आज ही नहीं, अनंत काल से जलती आ रही है। वह है,कषाय भाव की आग। कोई भी तो खाली नहीं है उस आग से।बाहर के यह ज्वालामुखी एवं दावानल तो कुछ दिन के बाद बुझ भी जाते हैं। उनकी एक सीमा है और जला देती है सिर्फ बाह्य पदार्थों को किंतु हमारे अंदर की आग की न कोई सीमा है और ना कोई निश्चित तिथि है कि वह कब शांत होंगी। इसलिए महाश्रमण भगवान महावीर ने कहा था और गणधर गौतम ने श्रमन केशी कुमार  के समक्ष उसे दोहराया था - कषाय ही भयंकर अग्नि है। संसार में उस से बढ़कर अन्य कोई अग्नि नहीं है-

              'कषाया अग्गिणो वुत्ता'

       वह कैसे शांत हो सकती है? वह तभी बूझ सकती है, जब हम ऐसे संत के चरणों में पहुंच जाए, जिनकी कषाय शांत हो गई है। उनके चरणों में यह भयंकर दावानल शांत हो सकता है। उसे सद्गुरू का, संत का कोई वेश नहीं होता, कोई  बाह्नय चिन्ह नहीं होता।  कोई संप्रदाय नहीं होता। वस्तुतः  शांत-प्रशांत आत्मा ही सद्गुरु है। वही संत है जिसके लिए महापुरुषों ने कहा है-

             'वसंतवत्  लोकहितं चरन्त'

         संत वह है जो वसंत के समान लोक-हित में रत रहते हैं। धरती पर छोटे-बड़े जो वृक्ष सूखे पड़े हैं, पतझड़ में सभी पत्ते गिर जाने से जो ठूंठ से बन गए हैं। और लोग कहने लगते हैं कि अब ये पल्लवित पुष्पित नहीं होंगे। अतः उखाड़ फैंको इन्हे। परंतु जब वसंत का आगमन होता है, तब देखते ही देखते उन पर अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं, नए पल्लव निकलने लगते हैं और फिर पुष्प एवं फलों से परिपूर्ण हो जाते हैं। और वह बहुत सुंदर सुहावने लगते हैं। अनेक पशुओं, पक्षियों एवं मनुष्य के आश्रय स्थल बन जाते हैं। पक्षी उनके सिर पर आकर बैठने लगते हैं। वे डाल डाल पर आ कर बैठते हैं, चहचहाते हैं और पत्र पुष्पों को नोचते हैं। फलों को कुतर कुतर कर खाते हैं। फिर भी वह सब को अपने सिर पर रखता है। वह कभी यह नहीं कहता, कौन पक्षी मेरे पर बैठेगा और कोई नहीं बैठेगा? ऐसा नहीं कि हंस तो बैठेगा पर बगुला नहीं, तथा कोयल तो बैठ सकती है पर कौवा नहीं? वह इतना उदार है कि जो आए वह बैठे। इसी तरह सघन छाया में भी पशु आकर बैठे तो उसे शीतलता देता है और मनुष्य आकर विश्राम करें तो उसे भी शांति प्रदान करता है। सब को समान भाव से विश्राम एवं शीतलता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त उसके पत्र, पुष्प, फल एवं जड़ भी औषध के काम में आते रहते हैं। यह सब काम किया किसने? वृक्ष का यह ऐश्वर्य, यह वैभव आया कहां से? वसंत ने दिया है यह महत्वपूर्ण ऐश्वर्य!

ये भी पढ़े :- जैन तपस्या पर स्लोगन

        महापुरूषों ने वसंत की उपमा दी है, संत को। संत वसंत है। लोगों का जीवन सुख कर ठूंठ-सा हो गया है। उसमें न सद्भावना का अंकुर फूट रहा है, न कोई प्रेम-स्नेह का पुष्प खिल रहा है। उस ठूंठ के पास में कौन जाएगा? लेकिन वसंत के आगमन पर ठूंठ-सा परिलक्षित होने वाला वृक्ष पल्लवित पुष्पित हो जाता है। उसी तरह संत के चरण स्पर्श से शुष्क हो रहा जीवन भी हरा भरा हो जाता है।

       संत पतित पावनी गंगा है। जैसी गंगा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश और दूसरे से तीसरे प्रदेश में बहती जाती हैं। जिस ओर बहाव हैं, बहती है। उस और के प्रदेश को हरा भरा बना बना दी जाती हैं। आस-पास के पेड़ पौधे को अपने जल्द से सिंचन करती जाती है, सूख रही फसलों को हरा-भरा करते जाती है। इस प्रकार वह सब को सब कुछ देती जाती है। फिर विशेषता यह है कि उसका कोई लेखा जोखा भी नहीं रखती। बस अपना काम किया और आगे बढ़ गई। इसी तरह संत भी अपनी जीवन यात्रा में बह रहा है, निरंतर बह रहा है। वह किसी को अहिंसा का, किसी को दया का, किसी को दान का, किसी को प्रेम स्नेह एवं परोपकार का अमृत पिलाता जा रहा है। नीरस बन रहे जीवन को सरस,सर-सब्ज से बनाता जा रहा है। इसी विचार को देता हुआ वह गतिशील है सागर की ओर!

गुरु की महिमा का कोई छोर नहीं होता। एक बार वह हम पर बरसने लगे तो हम इस संसार सागर से पार हो सकते हैं। कषाय में अपने आप को कैसे संभालना यह कला हमें गुरू से ही मिलती है। जैन संत के जीवन में किसी भौतिक साधन, प्रलोभन, आरंभ , परिग्रह का स्थान नहीं रहता।


अवश्य पढ़े :- १] जैन तपस्या पर हिंदी स्पीच
                      २] जैन तपस्या पर हिंदी नाटिका 
                     ३] जैन ड्रामा
                      ४] शादी पर बनाई हिंदी कविता  
Previous
Next Post »

3 comments

  1. Very useful essay on Jain sant in hindi

    ReplyDelete
  2. काफी सुंदर निबंध लिखा आपने।

    ReplyDelete
  3. Dhanywad...hamara housala yu hi afjai karte rahe...

    ReplyDelete