कर्म सिद्धांत को समझाने वाली पुंडरिक कुंडरिक की जैन कहानी Jain Hindi Story on Karma " Pundrik-Kundrik "

November 27, 2017
  कर्म कभी हमें सताते है तो कभी रुलाते है। इन कर्मों की चकनाचोर  से कोई बच नहीं पाया है। जब कर्मो का उदय आता है तो इस जीव की क्या दशा होती है, यह हम पुण्डरीक कुण्डरीक जैन कहानी से जानने का प्रयास।

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कर्म सिद्धांत को समझाने वाली "पुंडरिक कुंडरिक" की जैन कहानी

Jain Hindi Story on Karma " Pundrik-Kundrik "

          महाराजा पदम् के मन में जब संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई तो अपने बड़े राजकुमार को राज्य देकर के सन्यासी बन गए। बड़े बेटे पुंडरिक ने सोचा जिसको मेरे पिता त्याग रहे हैं, स्वयं अनुपयोगी समझ रहे हैं, उसमें मैं क्यों फंसूँ। उसने कहा कि अगर आप राज्य छोड़ते हैं तो मैं भी इसे छोड़ता हूं। पुंडरिक ने भी अपने पिता के साथ दीक्षा अंगीकार कर ली।

        इधर उनके छोटे भाई कुंडरिक ने राजगद्दी संभाल ली। लेकिन रोज उनके मन में आता था कि यह राज्य मेरे पिता व बड़े भाई का छोड़ा हुआ है और मैं कितना जघन्य प्राणी हूं कि मैं इसी संसार के अंदर इन्हीं चीजों में लिप्त हूं। वैराग्य का भाव जब आता है तब मोहनिया कर्म कमजोर पड़ता चला जाता है और जो लोग वैराग्य के साथ संसार में रहते हैं उनका जीवन कीचड़ और पानी में कमल से खिले फूल के समान पवित्र रहता है। यह जिस जमाने की बात है उस समय छोटे लड़के ने इस संसार में लिप्त न होते हुए मन में पश्चाताप करते हुए,मन में विवेक रखते हुए 1000 वर्षों तक राज्य का शासन किया पर संसार में आसक्ती नहीं हुई।

       कुछ समय बाद साधू पिताजी का देवलोक  हो गया। उनके बड़े पुत्र जो संयमी उस साधू को, उनके मन में तरह-तरह की हलचल प्रारंभ हो गई। उनके जीवन में मोहनिय कर्म का उदय हुआ। वे विचार करने लगे मैं कितने दिनों तक साधना व संयम के पथ पर चलता रहा, इतनी तपस्या करता रहा लेकिन उसका फल मुझे क्या मिला? मुझे तो तकलीफ, परेशानी व कष्ट है। मोहनीय कर्म के कारण वैराग्य की भावना कम हुई और ये विचार आने लगें। वे गृहस्थ जीवन में तो नहीं आए, पर वैराग्य का भाव कम हुआ। संयम के प्रति मन न लगने के कारण 1000 वर्षों तक उसका पालन तो करते रहे लेकिन कर्म को तोड़ नहीं सके। इसलिए वे धर्मस्थान और  आश्रम में रहे,साधु बने रहे, पर वैराग्य के भाव स्थिर न रहने के कारण कर्मों के बंधन से कसते रहे।

              बहुत धीरे धीरे अपनी राजधानी की तरफ पहुंचा।कुण्डरिक को जब पता लगा कि मेरे बड़े भाई बड़ी साधना करने के बाद आए हैं तो स्वयं उनको लेने के लिए गया।पुण्डरिक ने कहा- मैं तुमसे अकेले में मिलना चाहता हूं। जिस समय दोनों भाई बैठे, उस समय पुण्डरिक जिसने जीवन भर संयम की आराधना की थी, कहने लगा मैं राज्य को प्राप्त करना चाहता हूं। मेरा संयम में मन नहीं लगता और न कभी लगा। कुण्डरिक विचार करने लगे जिसने सारी जिंदगी संयम की आराधना की वह इस समय क्या सोच रहा है उसने पुनः कहा वास्तव में यह राज्य मेरा है इसलिए इसे प्राप्त करना चाहता हूं। कुण्डरिक ने कहा-बड़े भाई यह सब राज्य आपका है लेकिन अब इस संसार के अंदर फंस कर क्या करोगे? पुंडरिक ने कहा तुम छोड़ना नहीं चाहता, अधिकार देना नहीं चाहता, यह बात अलग है पर मैं तो इसलिए आया था कि इस राज्य समृद्धि को प्राप्त कर लूं।कुंडरिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा अगर ऐसी बात थी तो पहले ही आ जाते,सारी जिंदगी संयम में रहे और आखिरी समय में इस जीवन को संसार के अंदर लगाकर क्या पाओगे? उसे कुंडरिक ने बहुत समझाया पर मोहनिय कर्म जीवन में आ जाए तो कितना ही कोई समझाए सामने सब देखता हुआ भी इंसान अंधा बना रहता है। कुंडरिक ने अपने बड़े भाई से कहा-अरे, जिस वेष को तुमने 1000 वर्षों तक जीवन में धारण किया उसको जमीन पर क्यों रखते हो?मेरे हाथ में दे दो,मेरे शरीर के ऊपर डालो और कुंडरिक ने साधु वेष को अंगीकार कर लिया। इस प्रकार 1000 वर्षों तक सांसारिक जीवन में रहा वह साधु वेष में आ गया।

          कर्मों की कैसी विडंबना है, कर्मों की श्रृंखला कितनी भयंकर है, कुंडरिक साधु वेष धारण करके आचार्य के पास गए। उसके बाद पारणा किया और अपना मन संयम की आराधना में लगा दिया। राजसी वैभव को छोड़कर,पैदल चलना, गर्मी सहन करना इत्यादि उनका शरीर बर्दाश्त ना कर सका और 3 दिन का संयम पारणा कर डाला। उधर बड़े भाई खूब राजसी ठाठ से भोजन करने लगे, जिससे पाचन शक्ति खराब होती चली गई। शरीर व्याधिग्रस्त हो गया 3 दिन तक संसार में रहे और फिर खूब खराब गति में गए। इन कर्मों को पछाडने के लिए हमें बडा़ सावधान रहकर चलना पड़ता है, तब कहीं जाकर जन्मों-जन्मों के संस्कार कम हो सकते हैं। वरना इच्छा और आसक्तीयों के पीछे भागते रहे, मनोकामनाओं के पीछे भागते रहे तो इन कर्मों से लड़ना आसान काम नहीं है।

  कहानी की सीख:-

 इतने दिन संयम में रहने का क्या फायदा हुआ?मन में वैराग्य हो तो भिक्षाचार करते हुए भी इंसान कर्मों को तोड़ता है लेकिन वैराग्य ना होने पर जितने भी कार्य साधु जीवन में किए उन सब पर मोहनीय कर्म का बंधन कसता जाता है। कुंडरिक ने अपने तीन की दिन तक कठोरतम साधना की और अपने जीवन को परिपूर्ण कर देव लोक में जन्म लिया। बड़े भाई को नरक में जाकर जन्म लेना पड़ा।जैसा शुभ अशुभ कर्म हम करते हैं वैसा ही हमे भोगना पड़ता है।

दोस्तों आशा है , कर्म सिद्धांत को समझने वाली यह यह पुण्डरीक कुण्डरीक की जैन कहानी  अच्छी लगी।  अपने साधर्मी भाई बहनों से शेयर करना ना  भूले।


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1 comment

  1. आपने काफी सुंदर शब्दों में कहानी लिखी हैं

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