जैन
दर्शन में बहुत ही सूक्ष्मता से जीव के पर्यायों का वर्णन किया है। एक जीव
की शुरुआत निगोद से होती है। किस प्रकार जीव का शारीरिक एवं आत्मिक विकास
होता है। किस प्रकार अपने दुखों को सहन कर वह मोक्ष के अव्याबाध सुख को
प्राप्त करता है। इसका बहुत सुंदर वर्णन इस नाटिका में है। इस नाटिका में
निगोद, पृथ्वीकाय से लेकर सिद्ध गति के जीव तक ऐसे अलग अलग लोगों को अपने
किरदार निभाने हैं। एक-एक परसन आएगा और अपना-अपना डायलॉग बोलकर चला जाएगा।
यह नाटिका बहुत ही प्रेरणादाई हैं एवं कर्मों के कारण जीव की क्या-क्या
दशाएं होती है, इसका बहुत ही खूबसूरती से वर्णन इस नाटिका में है, तो पेश
है, "जीव की आत्मकथा".....
अरे! ये क्याँ... यहां तो सब मुझे नया नया लग रहा है। यहां पर तो सब कितने सुंदर सुंदर पत्थर है... लेकिन यह मेरे शरीर पर आघात क्यों कर रहे हैं... इस हथोड़ी से मुझ पर प्रहार मत करो..आँ..आँ... मैं तो अब एक बहुमूल्य हीरा बन गया हूं। किसी के मस्तक को शोभायमान करूंगा। अब लगभग बाईस हजार वर्ष है यहीं रहना पड़ेगा...
3) अपकाय:
मेरे एक बूंद में असंख्यात जीव है। मेरे बिना तो इस सृष्टी की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।वनस्पति से हर कोई मुझे पाने के लिए तरसता है। पर यह मेरा दुरुपयोग क्यों कर रहे हैं, क्यों मुझे नाली में बहा रहे हैं, किसी की प्यास बुझाने का अर्थदंड पाप करो लेकिन अनर्थ दंड पाप अर्थात् मेरा दुरुपयोग मत करो...
4) तेउकाय:
उष्णमय मेरा शरीर किसी को साता उपजाता हूँ तो किसी को असाता...। तिन अहोरात्रि की मेरी स्थिति, पर है बडी़ भयावह। गर्माहट से दूसरों का शरीर तो जलता ही है..पर मेरे शरीर में भी अत्यंत वेदना होती है। न जाने कब इस तेउकाय शरीर से छुटकारा मिलेगा....?
5) वायुकाय:
अदृश्य है मेरी काया,
महसूस होगी जब हवा का झोंका आया....
मैं उस मन की तरह चंचल हूं आज यहां तो कल कहां...गर्मी में लोग मुझे पाने तरस जाते से हैं तो थंडी में मेरे आने से सिकुड जाते हैं। यहां से वहां,वहां से यहां जा कर मैं थक गया हूं ....
6) वनस्पतिकाय:
हरे भरे पेड़ मेरे सब को लुभाते हैं। रंगेबिरंगी फूल सबको सुहावने लगते हैं तो रसभरे मीठे मीठे फल सब की भूख शांत करते हैं । एक हरे पत्ते में भगवान ने असंख्यात जीव बताएं है तो कंदमुल में अनंत जीव बताएं हैं।
अरे इंसान! क्यों मेरी काया को नष्ट कर रहा है..मैं अगर ना रहूं तो तूम सांस भी नहीं ले सकते। क्योंकि मेरे कारण ही तुम्हे आँक्सीजन मिल रहा है। मेरी विशाल छाया मन को शांति पहुंचाती है। तो आखिर क्यों मेरे जंगल की जंगल नष्ट किए जा रहे हैं।अगर मुझे नष्ट करोगे तो इसका भुगतान तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। ओह! कितनी असह्य वेदना हो रही है, न जाने कब इस वेदना से मुझे छुटकारा मिलेगा?
7) बेईंद्रिय :-
ओहो..अब मेरे इंद्रियों का विकास हो गया है। अब मैं एकेद्रिंय से बेईंद्रिय में आ चुका हूं। मुझे स्पर्शेद्रिंय के साथ रसनेद्रिंय भी मिल चुकी है। सीप, शंख, नाहरु, अलसिया आदि मेरे प्रकार है।
8) तेईंद्रिंय :-
मैं तेंईंद्रिय का जीव, धीरे धीरे मेरा शारीरिक विकास हो रहा है। स्पर्शेद्रिंय, रसनेद्रिंय के साथ अब मुझे घ्राणेंद्रिय भी मिल चुकी है। जूं, लीख, चिंटी, खटमल आदि मेरे प्रकार है। अरे!अरे!! घी, तेल के डिब्बे को खुला मत रखो! मैं फिसल के मर जाऊंगा! रखना ही है तो हमेशा घी, तेल के डिब्बे बंद रखो।
जैन हिंदी नाटिका 'जीव की आत्मकथा
Jain Drama in Hindi - ' Jeev ki Atmakatha'
1) निगोद :
अनंत काल से यही निगोद में पड़ा हूं। न जाने कब मेरी पुण्यवानी का उदय होगा और अव्यवहार राशी से व्यवहार राशी में जाने का सौभाग्य मिलेगा। यहां पडे पडे अब पक गया हूं, न जाने कब मैं इस निगोद के जाल से अपने आप को अलग कर पाऊंगा।
2) पृथ्वीकाय:अनंत काल से यही निगोद में पड़ा हूं। न जाने कब मेरी पुण्यवानी का उदय होगा और अव्यवहार राशी से व्यवहार राशी में जाने का सौभाग्य मिलेगा। यहां पडे पडे अब पक गया हूं, न जाने कब मैं इस निगोद के जाल से अपने आप को अलग कर पाऊंगा।
अरे! ये क्याँ... यहां तो सब मुझे नया नया लग रहा है। यहां पर तो सब कितने सुंदर सुंदर पत्थर है... लेकिन यह मेरे शरीर पर आघात क्यों कर रहे हैं... इस हथोड़ी से मुझ पर प्रहार मत करो..आँ..आँ... मैं तो अब एक बहुमूल्य हीरा बन गया हूं। किसी के मस्तक को शोभायमान करूंगा। अब लगभग बाईस हजार वर्ष है यहीं रहना पड़ेगा...
3) अपकाय:
मेरे एक बूंद में असंख्यात जीव है। मेरे बिना तो इस सृष्टी की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।वनस्पति से हर कोई मुझे पाने के लिए तरसता है। पर यह मेरा दुरुपयोग क्यों कर रहे हैं, क्यों मुझे नाली में बहा रहे हैं, किसी की प्यास बुझाने का अर्थदंड पाप करो लेकिन अनर्थ दंड पाप अर्थात् मेरा दुरुपयोग मत करो...
4) तेउकाय:
उष्णमय मेरा शरीर किसी को साता उपजाता हूँ तो किसी को असाता...। तिन अहोरात्रि की मेरी स्थिति, पर है बडी़ भयावह। गर्माहट से दूसरों का शरीर तो जलता ही है..पर मेरे शरीर में भी अत्यंत वेदना होती है। न जाने कब इस तेउकाय शरीर से छुटकारा मिलेगा....?
5) वायुकाय:
अदृश्य है मेरी काया,
महसूस होगी जब हवा का झोंका आया....
मैं उस मन की तरह चंचल हूं आज यहां तो कल कहां...गर्मी में लोग मुझे पाने तरस जाते से हैं तो थंडी में मेरे आने से सिकुड जाते हैं। यहां से वहां,वहां से यहां जा कर मैं थक गया हूं ....
6) वनस्पतिकाय:
हरे भरे पेड़ मेरे सब को लुभाते हैं। रंगेबिरंगी फूल सबको सुहावने लगते हैं तो रसभरे मीठे मीठे फल सब की भूख शांत करते हैं । एक हरे पत्ते में भगवान ने असंख्यात जीव बताएं है तो कंदमुल में अनंत जीव बताएं हैं।
अरे इंसान! क्यों मेरी काया को नष्ट कर रहा है..मैं अगर ना रहूं तो तूम सांस भी नहीं ले सकते। क्योंकि मेरे कारण ही तुम्हे आँक्सीजन मिल रहा है। मेरी विशाल छाया मन को शांति पहुंचाती है। तो आखिर क्यों मेरे जंगल की जंगल नष्ट किए जा रहे हैं।अगर मुझे नष्ट करोगे तो इसका भुगतान तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। ओह! कितनी असह्य वेदना हो रही है, न जाने कब इस वेदना से मुझे छुटकारा मिलेगा?
7) बेईंद्रिय :-
ओहो..अब मेरे इंद्रियों का विकास हो गया है। अब मैं एकेद्रिंय से बेईंद्रिय में आ चुका हूं। मुझे स्पर्शेद्रिंय के साथ रसनेद्रिंय भी मिल चुकी है। सीप, शंख, नाहरु, अलसिया आदि मेरे प्रकार है।
8) तेईंद्रिंय :-
मैं तेंईंद्रिय का जीव, धीरे धीरे मेरा शारीरिक विकास हो रहा है। स्पर्शेद्रिंय, रसनेद्रिंय के साथ अब मुझे घ्राणेंद्रिय भी मिल चुकी है। जूं, लीख, चिंटी, खटमल आदि मेरे प्रकार है। अरे!अरे!! घी, तेल के डिब्बे को खुला मत रखो! मैं फिसल के मर जाऊंगा! रखना ही है तो हमेशा घी, तेल के डिब्बे बंद रखो।
9) चौरेद्रिंय :-
अब मुझे चार इंद्रियां मिल चुकी है। स्पर्शेद्रिंय, रसनेद्रिंय, घ्राणेंद्रिय के साथ अब मैंने चक्षुद्रिंय भी प्राप्त कर ली है। अरे वाह! चक्षुद्रिंय के द्वारा मैं अब यह दुनिया देख सकता हूं ! मक्खी, मच्छर, भवरा, बिच्छू आदि मेरे प्रकार है।
10) असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय :-
बेईंद्रिय, तेईंद्रिंय, चौरेंद्रिय से आज मैं तिर्यंच पंचेंद्रिय बन गया हूँ। अब मुझे पांच इंद्रियां परिपूर्ण मिल चुकी है, मैं और भी शक्तिशाली बन गया हूं। देखने के साथ सुनने की शक्ति मुझे प्राप्त हो चुकी है। लेकिन मन ना होने के कारण मैं अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर सकता!
11) सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय :-
मेरे विभिन्न प्रकार है। पंछी बनकर आकाश में उठता हूं तो मछली बन कर पानी में तैरता हूं। ऊंट, घोड़ा, गाय बनकर इस पृथ्वी की सैर करता हूं तो साँप बनकर लोगों को डराता हूं। भूख-प्यास से मेरी जान जा रही है! थंडी, बारिश में मेरा शरीर सिकुड़ जाता है। गर्मी को सहन कर पाना मुश्किल हो जाता है पर मैं मेरे मन की व्यथा किसी से कह नहीं पाता हूं!
12) नरक गति :-
नरक गति- चारों गतियों में सबसे दर्दनाक गति! यहां पर 10 प्रकार की वेदनायें भोगी जाती है। न जाने कितने घोर पाप किए जो नारकीय बनना पड़ा। परमाधार्मि देव मेरे शरीर के असंख्यात टुकड़े कर रहे हैं। अत्यंत प्यास लगने के बाद तालाब देखकर पानी पीने जाता हो तो देवता उस तालाब को सुखाने की चेष्टा करते हैं। यहां प्रकाश की किरने तक नहीं आती, बस अंधेरा ही अंधेरा है! और स्थिति 10000 वर्ष से 33 सागरोपम तक! न जाने कब मेरे दुखों का अंत होगा....
13) देव गति :-
अपने दिव्य सुखों को भोगने के लिए मेरा जन्म देव गति में हुआ है। यहां तो बस आराम ही आराम है। मनचाहे पकवान मिल जाते हैं। मेरे हीरे जड़ित वस्त्र एवं आभूषण सभी गति के जीवों को लुभाते हैं। लेकिन इतना दिव्य सुख भोगने के बाद भी मैं नवकारसी जैसा छोटा पच्चक्खाण भी नहीं ले सकता। अरे! वह दिन धन्य होगा जिस दिन में मनुष्य बनकर जिनशासन की आराधना करूंगा।
14) मनुष्य गति :-
जिस भव का मैं अत्यंत काल से इंतजार कर रहा था, वह दुर्लभ मनुष्य भाव मैंने प्राप्त कर लिया है। अब तो मुझे ऐसी करणी करनी है कि इस संसार सागर से मैं तीर जाऊं। अरे वाह! आज तो मेरे परमपिता भगवान महावीर का जन्म दिन है, मुझे मेरे भगवान का जन्म दिन बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाना है। तप, त्याग से मेरी आत्मा को निखारना है। ऐसी उत्तम साधना करना है की भगवान की भक्ति करते-करते मैं स्वयं भगवान बन जाऊँ और अपने कर्मों को नष्ट कर दूँ।
15) मोक्ष गति :-
आखिर अष्ट कर्मों को खपाकर मोक्ष के अव्याबाध सुख को मैंने प्राप्त कर लिया। कितनी शांति है यहां पर! न भूख, न प्यास, न जन्म, न मरन, न सुख, न दुख। बस शांति ही शांति है। यहां पर इस परम सुख को पाने के लिए न जाने कितने अनंत भव मैंने दुखभरे बिताए। लेकिन अपने जीवन का लक्ष्य सिद्ध गति, सिद्ध शिला को प्राप्त करके मैं धन्य हो गया हूं।
दोस्तों...नाटिका ऐसी होनी चाहिए जिससे हमें कुछ मैसेज मिल सके। इस नाटिका में हमारे जीवन का क्या लक्ष्य है, उसके बारे में जानकारी हमें मिलती हैं। अगर आपके पास इतने किरदार निभाने के लिए लोग नहीं है तो आप वही किरदार (लोग) रिपीट भी कर सकते हैं। आशा है, आपको यह नाटिका बेहद पसंद आई होगी। कृपया अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करके जिनशासन की प्रभावना करें।
अवश्य पढ़े :- १] जैन तपस्या पर हिंदी नाटिका
२] जैन चातुर्मास हिंदी कविता
३] बच्चो के लिए जैन हिंदी नाटिका
४] जैन तपस्या हिंदी स्पीच
अब मुझे चार इंद्रियां मिल चुकी है। स्पर्शेद्रिंय, रसनेद्रिंय, घ्राणेंद्रिय के साथ अब मैंने चक्षुद्रिंय भी प्राप्त कर ली है। अरे वाह! चक्षुद्रिंय के द्वारा मैं अब यह दुनिया देख सकता हूं ! मक्खी, मच्छर, भवरा, बिच्छू आदि मेरे प्रकार है।
10) असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय :-
बेईंद्रिय, तेईंद्रिंय, चौरेंद्रिय से आज मैं तिर्यंच पंचेंद्रिय बन गया हूँ। अब मुझे पांच इंद्रियां परिपूर्ण मिल चुकी है, मैं और भी शक्तिशाली बन गया हूं। देखने के साथ सुनने की शक्ति मुझे प्राप्त हो चुकी है। लेकिन मन ना होने के कारण मैं अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर सकता!
11) सन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय :-
मेरे विभिन्न प्रकार है। पंछी बनकर आकाश में उठता हूं तो मछली बन कर पानी में तैरता हूं। ऊंट, घोड़ा, गाय बनकर इस पृथ्वी की सैर करता हूं तो साँप बनकर लोगों को डराता हूं। भूख-प्यास से मेरी जान जा रही है! थंडी, बारिश में मेरा शरीर सिकुड़ जाता है। गर्मी को सहन कर पाना मुश्किल हो जाता है पर मैं मेरे मन की व्यथा किसी से कह नहीं पाता हूं!
12) नरक गति :-
नरक गति- चारों गतियों में सबसे दर्दनाक गति! यहां पर 10 प्रकार की वेदनायें भोगी जाती है। न जाने कितने घोर पाप किए जो नारकीय बनना पड़ा। परमाधार्मि देव मेरे शरीर के असंख्यात टुकड़े कर रहे हैं। अत्यंत प्यास लगने के बाद तालाब देखकर पानी पीने जाता हो तो देवता उस तालाब को सुखाने की चेष्टा करते हैं। यहां प्रकाश की किरने तक नहीं आती, बस अंधेरा ही अंधेरा है! और स्थिति 10000 वर्ष से 33 सागरोपम तक! न जाने कब मेरे दुखों का अंत होगा....
13) देव गति :-
अपने दिव्य सुखों को भोगने के लिए मेरा जन्म देव गति में हुआ है। यहां तो बस आराम ही आराम है। मनचाहे पकवान मिल जाते हैं। मेरे हीरे जड़ित वस्त्र एवं आभूषण सभी गति के जीवों को लुभाते हैं। लेकिन इतना दिव्य सुख भोगने के बाद भी मैं नवकारसी जैसा छोटा पच्चक्खाण भी नहीं ले सकता। अरे! वह दिन धन्य होगा जिस दिन में मनुष्य बनकर जिनशासन की आराधना करूंगा।
14) मनुष्य गति :-
जिस भव का मैं अत्यंत काल से इंतजार कर रहा था, वह दुर्लभ मनुष्य भाव मैंने प्राप्त कर लिया है। अब तो मुझे ऐसी करणी करनी है कि इस संसार सागर से मैं तीर जाऊं। अरे वाह! आज तो मेरे परमपिता भगवान महावीर का जन्म दिन है, मुझे मेरे भगवान का जन्म दिन बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाना है। तप, त्याग से मेरी आत्मा को निखारना है। ऐसी उत्तम साधना करना है की भगवान की भक्ति करते-करते मैं स्वयं भगवान बन जाऊँ और अपने कर्मों को नष्ट कर दूँ।
15) मोक्ष गति :-
आखिर अष्ट कर्मों को खपाकर मोक्ष के अव्याबाध सुख को मैंने प्राप्त कर लिया। कितनी शांति है यहां पर! न भूख, न प्यास, न जन्म, न मरन, न सुख, न दुख। बस शांति ही शांति है। यहां पर इस परम सुख को पाने के लिए न जाने कितने अनंत भव मैंने दुखभरे बिताए। लेकिन अपने जीवन का लक्ष्य सिद्ध गति, सिद्ध शिला को प्राप्त करके मैं धन्य हो गया हूं।
दोस्तों...नाटिका ऐसी होनी चाहिए जिससे हमें कुछ मैसेज मिल सके। इस नाटिका में हमारे जीवन का क्या लक्ष्य है, उसके बारे में जानकारी हमें मिलती हैं। अगर आपके पास इतने किरदार निभाने के लिए लोग नहीं है तो आप वही किरदार (लोग) रिपीट भी कर सकते हैं। आशा है, आपको यह नाटिका बेहद पसंद आई होगी। कृपया अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करके जिनशासन की प्रभावना करें।
अवश्य पढ़े :- १] जैन तपस्या पर हिंदी नाटिका
२] जैन चातुर्मास हिंदी कविता
३] बच्चो के लिए जैन हिंदी नाटिका
४] जैन तपस्या हिंदी स्पीच
जीव की आत्मकथा यह नाटिका बहोत अच्छी लगीं, आप ऐसे ही अच्छी अच्छी नाटिका पब्लिश करती रहे।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहोत बढिया ...
ReplyDeletethanku so much...
DeleteJeev ki Atmakatha - Very good Jain Hindi Drama
ReplyDeletethanks
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